About the Book:
दोस्तों, ज़िंदगी का सफर बड़ा ही विचित्र है। हमारी ज़िंदगी में एक तरफ जहाँ कई सुखद घटनाएँ होती हैं तो वहीं दूसरी तरफ कई दुखद घटनाएँ भी हो जाती हैं। ज़िंदगी नाना-प्रकार के सुख-दुख रूपी साजो-सामान से लदी वो नाव है जो संसार रूपी सागर में हिचकोले खाती हुई लगातार आगे बढ़ती जाती है। फुर्सत में न जाने क्यों, अक्सर मुझे याद आते हैं वो हमसफ़र जिन्होंने मेरे दिल में अपनी एक अलग जगह बना रखी है।
ये मेरे अपनों के बीच आपस की नोंक-झोंक, आईआईटी (बीएचयू) का टी-क्लब, आइएलएस व्हाट्सअप ग्रुप और वो व्यंग परिहास के मजेदार किस्से आज भी मुझे याद आते हैं। इन सब के बीच मैं कैसे भूल सकता हूँ अपनी पत्नी के साथ हुई उन तमाम नोंक-झोंक को भी जो आज शादी के चालीस साल बाद भी हमारी ज़िंदगी का एक अहम हिस्सा बन चुकी है। इस यादों के सफर को कुछ वास्तविक और कुछ काल्पनिक घटनाओं से जोड़कर यह लघुकथा संकलन तैयार किया गया है। पाठकों की सुविधा के लिए पुस्तक को निम्लिखित तीन भागों में बांटा गया है - मेरे अज़ीज़, मेरा घर संसार और मेरा सुकून: व्यंग परिहास एवं रोचक प्रसंग
हाँ तो दोस्तों, अब देरी किस बात की, उठाइए ये आपकी अपनी किताब और रंग जाइए मेरे साथ जीवन के रंगों में!
About the Author:
वाराणसी में जन्मे डॉ. अरुण कान्त झा ने काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से मेकेनिकल इंजीनियरिंग बी.टेक. और एम.टेक. की परीक्षा पास की और १९८८ में बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, मेसरा, रांची से पीएचडी (मेकेनिकल इंजीनियरिंग) की उपाधि प्राप्त की।
तकनीकी विषयों के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में लघुकथाएँ व कहानियाँ लिखना-पढ़ना आप का शौक है। मासिक पत्रिका ‘धर्मयुग’ में आप की एक व्यंग-परिहास रचना प्रकाशित हो चुकी है। ‘ज़िंदगी के रंग, तेरे मेरे संग’ आपकी पहली लघुकथा संकलन रचना है।